अजीब कश्मकश है ए ज़िंदगी तेरी,
हर पल तेरे नए रूप से,
तू वाकिफ कराती है।
अनजानी सी एक तलाश की ख़ातिर,
हर रोज़ एक ही कारवाँ पर ले आती है।
न जाने क्यों तेरे संग-संग ,
मैं यूँ बदलते जाती हूँ,
जैसे तू रंगती मुझको,
मैं वैसे ही रंगते जाती हूँ।
क्यों कभी खिलखिला उठती हूँ
बेवजह की बातों पर,
तो क्यों कभी वजह होते भी,
खामोश सी रह जाती हूँ।
क्यों बनती हूँ कभी सहारा किसी का,
तो क्यों कभी, अपने ही साये को तरस जाती हूँ।
क्यों कभी खुद राह बनाती अपनी,
तो क्यों कभी बंजारों सी,
राह-राह भटकती हूँ।
क्यों कभी जीतने की ज़िद होती है दुनिया से,
तो क्यों कभी खुद से ही हार जाती हूँ।
क्यों कभी बेपरवाह हो इस दुनिया से,
खुद में ही उड़ती फिरती हूँ,
तो क्यों कभी भरी महफिल में भी,
तन्हा सी रह जाती हूँ।
इन सवालों से मुखातिब हो जब मैं,
निः शब्द सी रह जाती हूँ,
तब समझदारी की हर बात से परे हो,
बेफिक्र से एक बचपन की तलाश में,
अक्सर मैं निकल जाती हूँ।
Surbh! Nema
10-11-16
Good Keep it up:-)
ReplyDeleteThank You... :-)
Deletegreat!!
ReplyDeleteThank You Jiju... :-)
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