कभी शिद्धत से सुनो तो पता चले...
ये बेज़ुबान ख़ामोशियाँ,
ज़ुबा से कहीं ज्यादा बतियाती हैं...!!!
✍सुरभि
कभी शिद्धत से सुनो तो पता चले...
ये बेज़ुबान ख़ामोशियाँ,
ज़ुबा से कहीं ज्यादा बतियाती हैं...!!!
✍सुरभि
अंजाने अजनबियों सी मैं,
जब इन गलियों मे आई थी ।
क्षत्र-छाया मिली आपकी,
आदरणीय आपको पाई थी ।
ज़िंदगी के इस संघर्ष में,
विश्वास भी डगमगाया था ।
धीरज धरे चलने का हुनर,
आपने ही तो सिखाया था ।
आज नई चुनौती से फिर,
जीवन एक बार गुज़र रहा है ।
बंधाया था जो विश्वास आपने,
वो टूट कर जैसे बिखर रहा है ।
मैं झुकी हूँ मेरी कलम झुकी है,
कर रही है दुआ ख़ुदा से ।
सलामत रखे सदा आपको,
हमें फिर सानिध्य मिले आपसे ।
✍ सुरभि
१८-०४-२०१८
१०:३२am
रूह काँप उठी है मेरी,
मैं तो बस इंसान हूँ ।
पर तुम क्यों इतने ख़ामोश हो कान्हा,
तुम तो सबके भगवान हो ।
तेरे द्वार पर आकर जाने कितने,
जीवन तबाही से बच गए ।
पर ये कैसे हैवान थे कान्हा,
जो पाप का ताण्डव रच गए ।
किसी ने उस मासूम गुड़िया पर,
पिता सा आश्रय किया होता ।
कुछ और ना सही इंसान होने का,
एक परिचय तो दिया होता ।
क्यों नही काँपे हाँथ उनके,
जब पीड़ा से वो चिल्लायी होगी ।
एक नन्ही कली खिलने से पहले,
जाने कितनी बार मुरझाई होगी ।
एक अन्याय से सहमा परिवार,
दूजे अन्याय का अब शिकार होगा ।
कोई खेलेगा दाँव सियासी,
और अंधा कानून लाचार होगा ।
आज इतिहास भी दुहराने के सच से,
खुद की नज़रे चुराता होगा ।
"निर्भया" दास्ताँ पर "आसिफ़ा" लिखने में,
हाथ तो उसका भी कतराता होगा ।
संभल भी जा ए-मानव,
तू कितना विध्वन्श मचाएगा ।
अपने पुरुषत्व पर अहम् कर के,
तू और कितना इतराएगा ।
अपनी करतूतों से मुल्क का नाम,
तूने माटी में मिला दिया ।
स्वर्णिम अक्षरों वाले "भारत" को तूने,
उपहार काले आखर का दिला दिया...!!!
✍ सुरभि
१३-०४-२०१८
०८:४३pm
कितना प्यारा मौसम था....जैसे हवाएँ प्यार के रंग बिखेर रही हो...!!!
अरसे बाद मिले थे हम, आख़िर उसकी शिकायतें जायज़ थी....हालांकी मेरे भी कुछ सवाल थे और उसकी शिकायतों के जवाब भी ।
कुछ ख़्वाब थे जो हक़ीक़त में बदलने के पहले ही दम तोड़ चुके थे....कुछ अधूरी बातें थीं जिन्हें कभी पूरी होने का वक्त ही ना मिला ।
इस बार भी हर बार की तरह मैं ख़ामोश थी और ये ख़ामोशी वजह थी
"बस एक सवाल की"
जो हर गिले-शिकवे से परे मैं उससे सुनना चाहती थी सिर्फ एक सवाल- "कैसी हों"...???
पर अफ़सोस हर बार की तरह इस बार भी उसकी बातों में बस शिकायतें ही थी ।
वो लम्हा भी कितना अजीब था जहाँ हम दोनों ही ख़ामोश थे । एक को जवाब का इंतज़ार था तो दूजे को सवाल का...!!!
हवाएँ भी जैसे हमारी ख़ामोशी पढ़ चुकीं थी और शायद हमारी चुप्पी टूटने का इंतज़ार कर रही थी । चारो ओर सिर्फ एक सन्नाटा सा था...जैसे दो ख़ामोश नज़रो के बीच का सन्नाटा या कहूँ दो उलझी धड़कनो के टूटने का सन्न्नाटा...!!!
ये शिकायत, ये गिले-शिकवे पहले से कुछ भी तो अलग ना था फिर भी ना जाने क्यों एक उम्मीद थी बस एक उम्मीद ।
वो शायद कुछ कहना चाहता था, मैं उस अहसास को महसूस कर सकती थी । वो कुछ कहता कि पहले ही मेरे चेहरे पर एक मुस्कान फूट पड़ी....तभी अचानक एक आवाज़ आई....
"सुबह हो गई है ख़्वाबों की दुनिया से बाहर आ जा"
इतना सुनते ही मेरे नींद टूट गई....मैनें आँखें मल कर देखा तो सामने कुछ भी ना था...ना वो, ना सन्नाटा और ना ही कोई सवाल...!!!
कुछ बचा था वो थी मैं और मेरा इंतज़ार
सच......"सुबह हो चुकी थी"
✍सुरभि
०१-०४-२०१८
०८:०९ pm