अंजाने अजनबियों सी मैं,
जब इन गलियों मे आई थी ।
क्षत्र-छाया मिली आपकी,
आदरणीय आपको पाई थी ।
ज़िंदगी के इस संघर्ष में,
विश्वास भी डगमगाया था ।
धीरज धरे चलने का हुनर,
आपने ही तो सिखाया था ।
आज नई चुनौती से फिर,
जीवन एक बार गुज़र रहा है ।
बंधाया था जो विश्वास आपने,
वो टूट कर जैसे बिखर रहा है ।
मैं झुकी हूँ मेरी कलम झुकी है,
कर रही है दुआ ख़ुदा से ।
सलामत रखे सदा आपको,
हमें फिर सानिध्य मिले आपसे ।
✍ सुरभि
१८-०४-२०१८
१०:३२am
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