रूह काँप उठी है मेरी,
मैं तो बस इंसान हूँ ।
पर तुम क्यों इतने ख़ामोश हो कान्हा,
तुम तो सबके भगवान हो ।
तेरे द्वार पर आकर जाने कितने,
जीवन तबाही से बच गए ।
पर ये कैसे हैवान थे कान्हा,
जो पाप का ताण्डव रच गए ।
किसी ने उस मासूम गुड़िया पर,
पिता सा आश्रय किया होता ।
कुछ और ना सही इंसान होने का,
एक परिचय तो दिया होता ।
क्यों नही काँपे हाँथ उनके,
जब पीड़ा से वो चिल्लायी होगी ।
एक नन्ही कली खिलने से पहले,
जाने कितनी बार मुरझाई होगी ।
एक अन्याय से सहमा परिवार,
दूजे अन्याय का अब शिकार होगा ।
कोई खेलेगा दाँव सियासी,
और अंधा कानून लाचार होगा ।
आज इतिहास भी दुहराने के सच से,
खुद की नज़रे चुराता होगा ।
"निर्भया" दास्ताँ पर "आसिफ़ा" लिखने में,
हाथ तो उसका भी कतराता होगा ।
संभल भी जा ए-मानव,
तू कितना विध्वन्श मचाएगा ।
अपने पुरुषत्व पर अहम् कर के,
तू और कितना इतराएगा ।
अपनी करतूतों से मुल्क का नाम,
तूने माटी में मिला दिया ।
स्वर्णिम अक्षरों वाले "भारत" को तूने,
उपहार काले आखर का दिला दिया...!!!
✍ सुरभि
१३-०४-२०१८
०८:४३pm
क्या कहूँ ?????
ReplyDeleteकविता और परिस्थिति , दोनों के लिये ही शब्द नहीं ।
शब्द नहीं हैं कुछ कहने को.....
ReplyDelete🙏🙏🙏
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